Sunday, December 20, 2009

अख़बार

मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था

अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त,
और हर मसूम टहनी पर फलों का बार था

देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया,
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे बार था

सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये,
आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था

अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब,
एक ज़माना था के जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था

काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई,
हम ने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था

राहत इन्दौरी

2 comments:

  1. सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये,
    आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था
    बहुत सुन्दर, लाजबाब !

    ReplyDelete
  2. बहुत बढ़िया!! अच्छी रचना है बधाई।

    काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई,
    हम ने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था

    ReplyDelete